कहानी संग्रह >> सपाट चेहरे वाला आदमी सपाट चेहरे वाला आदमीबच्चन सिंह
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‘सपाट चेहरे वाला आदमी’ बच्चन सिंह की लम्बी कहानियों का दूसरा संकलन है।....
‘सपाट चेहरे वाला आदमी’ बच्चन सिंह की लम्बी कहानियों
का दूसरा संकलन है। पहले संकलन की तरह इसमें भी पांच कहानियां है।
‘बुढ़ापा’ कहानी वृद्धावस्था की अशक्तता, उपेक्षा और पारिवारिक प्रताड़ना की एक त्रासदी है जो लेखक की अभिव्यक्ति क्षमता और शिल्प के कारण पाठकों को सीधे अपील करती है।
‘जबह’ पत्रकारिता जगत की विद्रूपताओं की एक सशक्त कथा है। संस्थान के महाप्रबंधक के भ्रष्टाचार और धन-लोलुपता का शिकार कैसे एक जिले के ब्यूरोचीफ प्रदीप को होना पड़ता है, यह कहानी उसकी जीवंत प्रस्तुति है।
संकलन की तीसरी कहानी ‘जनादेश’ मौजूदा लोकतंत्र के विकृत स्वरूप का एक ज्वलंत दस्तावेज है और पाठक को बताती है, कि किस प्रकार राजनीतिकों और अपराधियों में गठजोड़ होता है तथा बाहुबल-धनबल के खौफनाक खूनी पंजों में लोकतांत्रिक व्यवस्था बुरी तरह फंसती जा रही है।
चौथी कहानी है, ‘जोग लिखी कि...’ जो भारतीय समाज व्यवस्था में एक स्त्री की व्यथा को परत दर परत उजागर करती है और अंततः विवशता एवं परम्परा की जंजीरों को तोड़ कर उसे मुक्त आकाश में विचरण के लिए पिंजड़े से बाहर निकालती है...
पांचवीं और अंतिम कहानी है ‘सपाट चेहरे वाला आदमी।’ इसमें बम्बई महानगर की फुटपाथी जिंदगी में एक मासूम और खूबसूरत त्रिकोणीय प्रेम प्रसंगों की घटनाओं का पूरी मार्मिकता के साथ दिलचस्प वर्णन है जो पाठक को ओरे से सिरे तक बांधे रखता है।
कुल मिलाकर यह संकलन हिंदी साहित्य के पाठकों को लेखक की अमूल्य भेंट है।
‘बुढ़ापा’ कहानी वृद्धावस्था की अशक्तता, उपेक्षा और पारिवारिक प्रताड़ना की एक त्रासदी है जो लेखक की अभिव्यक्ति क्षमता और शिल्प के कारण पाठकों को सीधे अपील करती है।
‘जबह’ पत्रकारिता जगत की विद्रूपताओं की एक सशक्त कथा है। संस्थान के महाप्रबंधक के भ्रष्टाचार और धन-लोलुपता का शिकार कैसे एक जिले के ब्यूरोचीफ प्रदीप को होना पड़ता है, यह कहानी उसकी जीवंत प्रस्तुति है।
संकलन की तीसरी कहानी ‘जनादेश’ मौजूदा लोकतंत्र के विकृत स्वरूप का एक ज्वलंत दस्तावेज है और पाठक को बताती है, कि किस प्रकार राजनीतिकों और अपराधियों में गठजोड़ होता है तथा बाहुबल-धनबल के खौफनाक खूनी पंजों में लोकतांत्रिक व्यवस्था बुरी तरह फंसती जा रही है।
चौथी कहानी है, ‘जोग लिखी कि...’ जो भारतीय समाज व्यवस्था में एक स्त्री की व्यथा को परत दर परत उजागर करती है और अंततः विवशता एवं परम्परा की जंजीरों को तोड़ कर उसे मुक्त आकाश में विचरण के लिए पिंजड़े से बाहर निकालती है...
पांचवीं और अंतिम कहानी है ‘सपाट चेहरे वाला आदमी।’ इसमें बम्बई महानगर की फुटपाथी जिंदगी में एक मासूम और खूबसूरत त्रिकोणीय प्रेम प्रसंगों की घटनाओं का पूरी मार्मिकता के साथ दिलचस्प वर्णन है जो पाठक को ओरे से सिरे तक बांधे रखता है।
कुल मिलाकर यह संकलन हिंदी साहित्य के पाठकों को लेखक की अमूल्य भेंट है।
अनुक्रम
बुढ़ापा
यदुनंदन पचासी डाँक गए होंगे। कुछ लोगों का यह भी खयाल है कि वह नब्बे पार
कर रहे होंगे। अमीर कहता है कि जौन साल मोर पैदाइस भई रही, ओसाल यदुनन्दन
बब्बा अपने जेठरा लइका के बियाह फाने रहे। अब हम तीन लइका के बाप हो गए।
एतने से सोच लो सभें कि यदुनंदन बब्बा के का उमिर हो गई होगी। बहरहाल
यदुनंदन की उम्र को लेकर गाँव में प्रायः बहस छिड़ जाती लेकिन कोई
सर्वसम्मत फैलता नहीं हो पाता। ख़ुद यदुनंदन उम्र सौ साल के आसपास बताते
लेकिन उनकी बात पर कोई यक़ीन नहीं करता। पर इस बात पर प्रायः सहमति है कि
यदुनंदन पके आम है, किसी भी समय चू सकते हैं।
यदुनंदन की जवानी बसहटा पर सोते-सोते कट गई। लड़के जब बड़े हुए, कुछ कमाने-धमाने लगे तो उनकी पुरानी बसहटा को मूँज के सुतरी से बिनवा दिया। वह भी टूटते-जुड़ते खोलचही हो गई है। यदुनंदन जब फटी-पुरानी कथरी बिछाते हैं तो वह चारों तरफ से सिकुड़ कर बीच में लुड़िया जाती है। यदुनंदन रात में कई बार उठकर उसे फैलाते हैं लेकिन वह फिर सिकुड़ कर लुगदी बन जाती है। वह चारपाई का उनचन कसते हैं। उनकी आशा के मुताबिक खाट थोड़ी तन जाती है, लेकिन घण्टे-दो घण्टे बाद ही पूर्व की स्थिति में लौट आती है। बाधियाँ नई जगह टूट जाती हैं।
यदुनंदन के तीन बेटे और दो बेटियाँ हुई। आख़ीर में बेटा हुआ था–पेट पोंछना, लेकिन उसके पैदा होने के साल भर बाद ही यदुनंदन विधुर हो गए। टोले-मुहल्ले और रिश्तेदारियों के कुछ लोगों ने कहा, ‘बड़ा कुलबोरन है ससुरा, जनमते ही माई को खा गया।’ इस लड़के का नाम ही पड़ गया कुलबोरन। तरह-तरह के तानों अपमान और उपेक्षा के बीच पला और बड़ा हुआ कुलबोरन। कुशाग्र बुद्धि का था। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल रहा। बी.ए.करके सरकारी नौकरी में आ गया। पोस्टिंग देहरादून में हुई। इसके बाद उलट कर नहीं देखा घर की ओर। न चिट्ठी, न पत्री, न रुपया न पइसा...कुछ भी नहीं। किसी पर्वतीय बाला से शादी कर ली। अपना घर बसा लिया।
बाकी दोनों लड़के भी अलग हो गए। एक रिक्शा खींच रहा था, दूसरा राजग़ीरी कर रहा था। राजगीरी करने वाला सभ्य था। अच्छी राजगीर था–अपने हुनर में माहिर। दोनों भाइयों ने तय किया कि बाबू महीने में पंद्रह दिन एक तरफ़ खाएँगे, पंद्रह दिन दूसरी तरफ। साल में दो मारकीन की नौछियाँ और दो मारकीन के नरखों की ज़रूरत है, एक-एक जोड़ी दोनों दे देंगे। यह भी तय हुआ कि सुर्ती-तमाखू के लिए पाँच-पाँच रुपये दे दिए जाएँगे। यदि बाबू बीमार पड़े तो ? तो दवा-दारू में जो खर्चा गिरेगा उसका आधा-आधा ओज लिया जाएगा।
यदुनंदन जिस मड़ई में सोते थे वह खंखड़ हो चुकी थी। बरसात में इस कदर चूती थी कि यदुनंदन अपनी कथरी समेट कर मुड़तारी कर लेते थे और उसी पर बैठकर रात बिताते थे। गर्मियों में चारों तरफ से लू लगती थी और छप्पर के झरोखों में तल्ख धूप यदुनंदन के बदन पर चकत्ते की तरफ चिपक जाती थी। मड़ई में हवा न आए, इसके लिए बतौर मुकम्मल इंतजाम दो तरफ से टाटी खड़ी कर दी गई थी लेकिन वह टाटी धीरे-धीरे उजड़ गई है। इसीलिए जाड़े में हाड़ कँपा देने वाली हवा बिना किसी संकोच और बाधा के यदुनंदन के भीतर तक घुसती चली जाती है। वह अपने पैरों को मोड़कर सिर तक ले आते हैं और दोनों पैरों की जाँघों के बीच में अपनी दोनों हथेलियाँ सटाकर गुड़मुड़ा जाते हैं। फिर भी ठंड पीछा नहीं छोड़ रही। कभी-कभी कँपा ही देती है। गनगना देती है। यदुनंदन बड़बड़ाते हैं, ‘लगता है, जान लेके ही मानेगी ई ससुरी ठंड। जा-जाके लौट आवत है। चार दिन घाम भया रहा तो थोड़ी राहत थी, अब फिर बदरोह होने लगा। कहीं झमक के बरस दिया तो कहाँ जाएँगे...।’
एक दिन मझले लड़के से कहते हैं, ‘मनमोहन, ज़रा चले जाते कौनो पट्टी से दो-चार आँटा पुअरा माँग लाते तो एदा साल के जाड़ा कट जाता। अगले साल देखा जाता। तब ले का जाने परान राम निकली जाँय। केतनो ठारी परै बेटवा बाकि तो पुआर के लग्गे नाहीं नचिकात।’
‘पुआर माँग के अपनी नामूसी नहीं करानी बाबू। थोडा हाथ सरकने दो तो रजाई बनवा देते हैं। लेकिन अकेले रजाई से तो काम चलेगा नहीं, नीचे गद्दा भी चाहिए न। बड़के भइया से कहो कि एक गद्दा बनवा दें, फिर हम करते हैं रज़ाई की ज़ुगाड़।’
यदुनंदन बड़े लड़के हरिमोहन से मझले लड़के की बात कहते हैं तो वह झुँझला उठता है, ‘ई मनमोहन बहुत लुच्चा है बाबू। डेढ़ सौ रुपया रोज़ कमाता है। मेहरी के गहना गढ़ा सकता है लेकिन रज़ाई-गद्दा नहीं बनवा सकता।
गद्दा मेरे ऊपर ठेल रहा है। मैं बच्चों के लिए जड़ावर तो बनवा ही नहीं पा रहा हूँ, गद्दा कैसे बनवा सकता हूं। उससे कहिए कि रज़ाई बनवा दे, फिर मैं मर-जीके गद्दा बनवा दूंगा। रीन-करज करूंगा तो क्या बाकि गद्दा बनवाऊंगा, वह पहले रजाई बनवा दे।’ फिर कहा हरिमोहन ने, ‘तू मनमोहन के नहीं जानते बाबू वह डूब के पानी पीता है। हमरे आगे जनमा, हमहीं को पाठ पढ़ाता है।’
‘तऽ हरिमोहन कौनों पट्टी से चार आंटा पुअरा लिया देते बेटवा तो ए साल गाड़ी सरक जाती। पर का पर देखा जाता। कौनो जतन नहीं होगा बेटवा तो हम तो किसी दिन अइंठ जाएँगे।’
‘ए नरक भोगे से तो मरी जाना अच्छा है बाबू। अब किस सुख के ख़ातिर जिनगी के मोह पाले हो। बूढ़-पुरनियाँ तो वहीं जीते हैं, जिनके भाग्य में कष्ट भोगना लिखा रहता है। जब तक डोलने-बोलने की ताकत शरीर में रहे, आदमी को शरीर छोड़ देना चाहिए। जीए से आपन फजीहत छोड़ाके कौनो सुकून मिलत है का...।’ अपनी बात पूरी होने से पहले ही हरिमोहन घर में चले जाते हैं, लेकिन घर में कही हुई बातें भी आसानी से सुन लेते हैं यदुनंदन।’
छाया सरकते-सरकते यदुनंदन के पास आ जाती है। वह उस ओर खिसक जाते हैं, जिधर एक टुकड़ा धूप पसरी होती है। थोड़ी देर में यह धूप भी लुप्त हो जाएगी तब यदुनंदन कुएँ की जगत पर चले जाएँगे।
लेकिन हरिमोहन की बातें सूजे की तरह देर तक नाथती रहती हैं उन्हें। सूजे का शरीर में चुभना, दो अंगुल के बाद बाहर आना, फिर चुभना और बाहर आना...कितना खौफ़नाक है यह, कितना पीड़ादायक है यह...जो भोगदण्ड भोगना है, वह तो भोगना ही पड़ेगा...। चाहे जिधर से मिले यह भोगदण्ड...अपने से मिले, पराए से मिले...कहीं से मिले पर भोगना तो हमें ही है। वैसे इस जिनगी में तो मैंने किसी का अनभल ताका नहीं, सभी का भला ही करने की कोशिश की, पर...पर पिछले जनम का कर्मफल भी तो भोगना पड़ता है...। कहने को तो तीन लड़के दिए भगवान ने, तीनों ही कमासुत हैं...थोड़ा-बहुत कमा ही रहे हैं...अपने बाल-बच्चों के लिए तो सब कुछ कर ही रहे हैं...लुग्गा-कपड़ा, गहना-गीठो, कापी-किताब...सब कर रहे हैं, लेकिन मेरे लिए सबों को नहीं अँटता। ज़रा देखो तो हरिमोहना का, बोलता है इस उम्र में तो मर जाना ही अच्छा है। कभी-कभी जीने की इच्छा चुक जाने के बाद भी तो जीना पड़ता है मनई को ! अपने हाथों होने वाले आत्महत्या जैसे पाप से बचने के लिए। अपनी जान लेना भी तो उतना ही पाप है, जितना दूसरे की जान लेना ! जितना भोगना है उसके लिए जिंदा रहना है...।
दुआर से भले हट गई हो धूप लेकिन सिवान में अभी है। हल्की पीली और कुनमुनी। यदुनंदन अपनी लाठी उठाते हैं और चल देते हैं अहिराने की तरफ। यह पूरा अन्य पूरों की अपेक्षा यदुनंदन के पूरे से करीब पड़ता है। यहाँ काम बन जाएगा तो यदुनंदन को ज्यादा नहीं दौड़ना पड़ेगा। काम बनेगा क्यों नहीं, पहले पंद्रह-पंद्रह, बीस-बीस आँटा मिल जाते थे, आज तो मात्र चार आँटा की ही बात है। इतने के लिए कोई बहाना नहीं बनाएगा। चार नहीं, तीन आँटा भी मिल जाएगा तो काम बन जाएगा। ऐसा करेंगे कि दो-दो आँटा दो जगहों से ले लेंगे। किसी पर बोझ भी नहीं पड़ेगा, अपना काम भी बन जाएगा। दो आँटा सोहन दे देंगे, दो आँटा चतुरी दे देंगे। नहीं दो-दो देंगे, एक-एक तो देंगे। एक-एक तीन जगह से ले लेंगे, यही ज्यादा सही रहेगा। किसी को नहीं खलेता।...यही सब सोचते-सोचते यदुनंदन अहिराने में दाख़िल हो जाते हैं। वह असमंजस में पड़ जाते हैं कि पहले किसके यहाँ चलें। सोहन के यहाँ, चतुरी के यहाँ या यमुना के यहाँ...फिर सोचते हैं कि पिछले चुनाव में तो फटकार दिए रहे, अब कौन मुँह लेकर जाएँ उन लोगों के यहाँ। अपने लड़के लायक होते तो यह बेहयाई काहे को साधनी पड़ती। वे लोग निश्चित रूप से खार ख़ाए बैठे होंगे। उन्हें बदला चुकाने का अच्छा अवसर मिलेगा...। यदि डाँट कर भगा दिया...उटका पैंची करने लगे तो मैं क्या जवाब दूँगा..., यह सदमा बर्दाश्त कर पाऊँगा मैं...! पुरुखों की यह बात सही है कि हर किसी से संबंध बना कर रखना चाहिए, पता नहीं कब कौन-सा काम पड़ जाय। लेकिन इस राजनीति को क्या कहें हम, हमारा भी दिमाग खराब करके रख दिया। लग रहा था जैसे राजा का सिंहासन हमें ही मिलने वाला हो। लाभ होगा तो नेता को, हानि होगी तो नेता को। अपने राम को तो बस मशीन का बटन दबाना रहा। कोई राज मिलना था ! फिर उखड़ने की क्या ज़रूरत थी ! क्यों कहना चाहिए था कि तू लोग अपनी पार्टी देखो, हम अपनी पार्टी देखें। अब जब अपनी-अपनी पार्टी बन गई है तो वोट क्यों माँगने आ गए। तू लोग हमारी पार्टी को वोट दोगे कि हम तुम्हारी पार्टी को वोट दें ? क्यों माँगने आए वोट ? जाके अपना-अपना काम देखो। फिर कभी मत आना हमारे दरवाज़े...कभी मत आना...कभी नहीं...। सोहन ने आँखें फाड़ कर मेरी ओर देखा था। लग रहा था जैसे उनके भीतर एक ज्वालामुखी खदबदा रहा हो और किसी भी समय फट सकता हो। बस चलता तो कच्चा चबा जाते, पर खून का घूँट पी कर रह गए...मैं किस मुँह से उनसे माँगूगा पुआल...किस मुँह से...। और यदुनंदन अहिराने से थोड़ा पहने ही चकरोड के किनारे उकड़ूँ बैठ जाते हैं, दोनों हाथ से लाठी पकड़े और सिर नीचे किए। उन्हें लगता है कि लाठी के सहारे टिकी है उनकी देह। लाठी न होती तो मुँह के बल भहरा जाते यदुनंदन।
उस समय यदुनंदन को लगा था कि ज़माना बिल्कुल बदल गया है। नहीं भी बदला है तो बदलने जा रहा है, बदल जाएगा। हर आदमी की नहीं तो कम से कम हर बिरादरीकी स्वतंत्र सत्ता हो जाएगी। एक-दूसरे के बीच चले आ रहे सनातनी रिश्ते खतम हो जाएँगे। हम अपना भाग्य बनाएँगे, वे अपना भाग्य बनाएँगे। अपने भाग्य के मालिक आप होंगे। न कोई दूसरे से कुछ लेगा, न खुद दूसरे को कुछ देगा। अब तो अपना राज आने वाला है, तो फिर दूसरे के सामने हाथ ही क्यों फैलाएँगे। अपने बलबूते जीएँगे...अपने बलबूते रहेंगे और अपने बलबूते...।
यदुनंदन के भीतर जैसे बिजली दौड़ गई हो। वह झटके से उठते हैं और लौट पड़ते हैं अपने पूरे की ओर सिवान की ओर निगाह दौड़ाते हैं। अछोर है सिवान। पहले हमारे गाँव के सरहद पर आम का एक बाग था। आठ पेड़ एक कतार में दीवार जैसे लग रहे थे, इसीलिए उस बाग का नाम अठपेड़वा पड़ गया था। ढोर सिवान में चर रहे होते और पेड़ की छाया में बैठ कर हम उन पर निगरानी कर रहे होते। अठपेड़वा यह बताता था कि इसके बाद पड़ोस के गाँव की सीमा शुरू हो जाती है। अब ढोर चराने वालों को आग उगलती जेठी में छाया नसीब नहीं होती होगी। आम के पेड़ कट गए। बाग खेत में बदल गया। दोनों गाँवों की सीमा की पहचान मिट गई। अल्लोपुर-अमरपट्टी की सीमा कहाँ खतम होती है, अल्लोपुर कहाँ से शुरू होता है। पुराने बाग खतम हो गए तो नए बाग क्यों नहीं पनप रहे हैं ! बड़ी जोत वाले किसान आपस में बँटते-बँटते छोटी जोत के हो गए हैं। थोड़े से खेत में खाने को अन्न उपजाएँ कि बाग लगाएँ। कुछ लोगों ने अपने चक के किनारे-किनारे सागौन या युकलिप्टस के पेड़ लगा दिये हैं लेकिन इनसे न फल मिलने है, न जलावन की लकड़ी। हाँ, जब बिकेंगे तब नकद आमदनी जरूर होगी...। और यदुनंदन अपने घर पहुँच जाते हैं।
‘अहिराने क्यों गए थे बाबू ?,’ हरिमोहन ने पूछा।
‘अहिराने नाहीं गए रहे,’ यदुनंदन ने कहा, ‘बइठे-बइठे मन उचाट हो गया तो सोचा, तनिक सिवान घूम आएँ। जीव आन-मान हो जाएगा। चकबंदी हो जाए से पूरा सिवानै बदल गया हो हरिमोहन।’
‘हाँ बाबू, बदल तो गया, बाकि आज गया तो गया, अब कभौं मत जाया अहिराने।’
‘तू हम्मै नान्ह के गदेला समझत हए का रे हरिमोहना ?’ यदुनंदन खीझ उठे,
यदुनंदन की जवानी बसहटा पर सोते-सोते कट गई। लड़के जब बड़े हुए, कुछ कमाने-धमाने लगे तो उनकी पुरानी बसहटा को मूँज के सुतरी से बिनवा दिया। वह भी टूटते-जुड़ते खोलचही हो गई है। यदुनंदन जब फटी-पुरानी कथरी बिछाते हैं तो वह चारों तरफ से सिकुड़ कर बीच में लुड़िया जाती है। यदुनंदन रात में कई बार उठकर उसे फैलाते हैं लेकिन वह फिर सिकुड़ कर लुगदी बन जाती है। वह चारपाई का उनचन कसते हैं। उनकी आशा के मुताबिक खाट थोड़ी तन जाती है, लेकिन घण्टे-दो घण्टे बाद ही पूर्व की स्थिति में लौट आती है। बाधियाँ नई जगह टूट जाती हैं।
यदुनंदन के तीन बेटे और दो बेटियाँ हुई। आख़ीर में बेटा हुआ था–पेट पोंछना, लेकिन उसके पैदा होने के साल भर बाद ही यदुनंदन विधुर हो गए। टोले-मुहल्ले और रिश्तेदारियों के कुछ लोगों ने कहा, ‘बड़ा कुलबोरन है ससुरा, जनमते ही माई को खा गया।’ इस लड़के का नाम ही पड़ गया कुलबोरन। तरह-तरह के तानों अपमान और उपेक्षा के बीच पला और बड़ा हुआ कुलबोरन। कुशाग्र बुद्धि का था। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल रहा। बी.ए.करके सरकारी नौकरी में आ गया। पोस्टिंग देहरादून में हुई। इसके बाद उलट कर नहीं देखा घर की ओर। न चिट्ठी, न पत्री, न रुपया न पइसा...कुछ भी नहीं। किसी पर्वतीय बाला से शादी कर ली। अपना घर बसा लिया।
बाकी दोनों लड़के भी अलग हो गए। एक रिक्शा खींच रहा था, दूसरा राजग़ीरी कर रहा था। राजगीरी करने वाला सभ्य था। अच्छी राजगीर था–अपने हुनर में माहिर। दोनों भाइयों ने तय किया कि बाबू महीने में पंद्रह दिन एक तरफ़ खाएँगे, पंद्रह दिन दूसरी तरफ। साल में दो मारकीन की नौछियाँ और दो मारकीन के नरखों की ज़रूरत है, एक-एक जोड़ी दोनों दे देंगे। यह भी तय हुआ कि सुर्ती-तमाखू के लिए पाँच-पाँच रुपये दे दिए जाएँगे। यदि बाबू बीमार पड़े तो ? तो दवा-दारू में जो खर्चा गिरेगा उसका आधा-आधा ओज लिया जाएगा।
यदुनंदन जिस मड़ई में सोते थे वह खंखड़ हो चुकी थी। बरसात में इस कदर चूती थी कि यदुनंदन अपनी कथरी समेट कर मुड़तारी कर लेते थे और उसी पर बैठकर रात बिताते थे। गर्मियों में चारों तरफ से लू लगती थी और छप्पर के झरोखों में तल्ख धूप यदुनंदन के बदन पर चकत्ते की तरफ चिपक जाती थी। मड़ई में हवा न आए, इसके लिए बतौर मुकम्मल इंतजाम दो तरफ से टाटी खड़ी कर दी गई थी लेकिन वह टाटी धीरे-धीरे उजड़ गई है। इसीलिए जाड़े में हाड़ कँपा देने वाली हवा बिना किसी संकोच और बाधा के यदुनंदन के भीतर तक घुसती चली जाती है। वह अपने पैरों को मोड़कर सिर तक ले आते हैं और दोनों पैरों की जाँघों के बीच में अपनी दोनों हथेलियाँ सटाकर गुड़मुड़ा जाते हैं। फिर भी ठंड पीछा नहीं छोड़ रही। कभी-कभी कँपा ही देती है। गनगना देती है। यदुनंदन बड़बड़ाते हैं, ‘लगता है, जान लेके ही मानेगी ई ससुरी ठंड। जा-जाके लौट आवत है। चार दिन घाम भया रहा तो थोड़ी राहत थी, अब फिर बदरोह होने लगा। कहीं झमक के बरस दिया तो कहाँ जाएँगे...।’
एक दिन मझले लड़के से कहते हैं, ‘मनमोहन, ज़रा चले जाते कौनो पट्टी से दो-चार आँटा पुअरा माँग लाते तो एदा साल के जाड़ा कट जाता। अगले साल देखा जाता। तब ले का जाने परान राम निकली जाँय। केतनो ठारी परै बेटवा बाकि तो पुआर के लग्गे नाहीं नचिकात।’
‘पुआर माँग के अपनी नामूसी नहीं करानी बाबू। थोडा हाथ सरकने दो तो रजाई बनवा देते हैं। लेकिन अकेले रजाई से तो काम चलेगा नहीं, नीचे गद्दा भी चाहिए न। बड़के भइया से कहो कि एक गद्दा बनवा दें, फिर हम करते हैं रज़ाई की ज़ुगाड़।’
यदुनंदन बड़े लड़के हरिमोहन से मझले लड़के की बात कहते हैं तो वह झुँझला उठता है, ‘ई मनमोहन बहुत लुच्चा है बाबू। डेढ़ सौ रुपया रोज़ कमाता है। मेहरी के गहना गढ़ा सकता है लेकिन रज़ाई-गद्दा नहीं बनवा सकता।
गद्दा मेरे ऊपर ठेल रहा है। मैं बच्चों के लिए जड़ावर तो बनवा ही नहीं पा रहा हूँ, गद्दा कैसे बनवा सकता हूं। उससे कहिए कि रज़ाई बनवा दे, फिर मैं मर-जीके गद्दा बनवा दूंगा। रीन-करज करूंगा तो क्या बाकि गद्दा बनवाऊंगा, वह पहले रजाई बनवा दे।’ फिर कहा हरिमोहन ने, ‘तू मनमोहन के नहीं जानते बाबू वह डूब के पानी पीता है। हमरे आगे जनमा, हमहीं को पाठ पढ़ाता है।’
‘तऽ हरिमोहन कौनों पट्टी से चार आंटा पुअरा लिया देते बेटवा तो ए साल गाड़ी सरक जाती। पर का पर देखा जाता। कौनो जतन नहीं होगा बेटवा तो हम तो किसी दिन अइंठ जाएँगे।’
‘ए नरक भोगे से तो मरी जाना अच्छा है बाबू। अब किस सुख के ख़ातिर जिनगी के मोह पाले हो। बूढ़-पुरनियाँ तो वहीं जीते हैं, जिनके भाग्य में कष्ट भोगना लिखा रहता है। जब तक डोलने-बोलने की ताकत शरीर में रहे, आदमी को शरीर छोड़ देना चाहिए। जीए से आपन फजीहत छोड़ाके कौनो सुकून मिलत है का...।’ अपनी बात पूरी होने से पहले ही हरिमोहन घर में चले जाते हैं, लेकिन घर में कही हुई बातें भी आसानी से सुन लेते हैं यदुनंदन।’
छाया सरकते-सरकते यदुनंदन के पास आ जाती है। वह उस ओर खिसक जाते हैं, जिधर एक टुकड़ा धूप पसरी होती है। थोड़ी देर में यह धूप भी लुप्त हो जाएगी तब यदुनंदन कुएँ की जगत पर चले जाएँगे।
लेकिन हरिमोहन की बातें सूजे की तरह देर तक नाथती रहती हैं उन्हें। सूजे का शरीर में चुभना, दो अंगुल के बाद बाहर आना, फिर चुभना और बाहर आना...कितना खौफ़नाक है यह, कितना पीड़ादायक है यह...जो भोगदण्ड भोगना है, वह तो भोगना ही पड़ेगा...। चाहे जिधर से मिले यह भोगदण्ड...अपने से मिले, पराए से मिले...कहीं से मिले पर भोगना तो हमें ही है। वैसे इस जिनगी में तो मैंने किसी का अनभल ताका नहीं, सभी का भला ही करने की कोशिश की, पर...पर पिछले जनम का कर्मफल भी तो भोगना पड़ता है...। कहने को तो तीन लड़के दिए भगवान ने, तीनों ही कमासुत हैं...थोड़ा-बहुत कमा ही रहे हैं...अपने बाल-बच्चों के लिए तो सब कुछ कर ही रहे हैं...लुग्गा-कपड़ा, गहना-गीठो, कापी-किताब...सब कर रहे हैं, लेकिन मेरे लिए सबों को नहीं अँटता। ज़रा देखो तो हरिमोहना का, बोलता है इस उम्र में तो मर जाना ही अच्छा है। कभी-कभी जीने की इच्छा चुक जाने के बाद भी तो जीना पड़ता है मनई को ! अपने हाथों होने वाले आत्महत्या जैसे पाप से बचने के लिए। अपनी जान लेना भी तो उतना ही पाप है, जितना दूसरे की जान लेना ! जितना भोगना है उसके लिए जिंदा रहना है...।
दुआर से भले हट गई हो धूप लेकिन सिवान में अभी है। हल्की पीली और कुनमुनी। यदुनंदन अपनी लाठी उठाते हैं और चल देते हैं अहिराने की तरफ। यह पूरा अन्य पूरों की अपेक्षा यदुनंदन के पूरे से करीब पड़ता है। यहाँ काम बन जाएगा तो यदुनंदन को ज्यादा नहीं दौड़ना पड़ेगा। काम बनेगा क्यों नहीं, पहले पंद्रह-पंद्रह, बीस-बीस आँटा मिल जाते थे, आज तो मात्र चार आँटा की ही बात है। इतने के लिए कोई बहाना नहीं बनाएगा। चार नहीं, तीन आँटा भी मिल जाएगा तो काम बन जाएगा। ऐसा करेंगे कि दो-दो आँटा दो जगहों से ले लेंगे। किसी पर बोझ भी नहीं पड़ेगा, अपना काम भी बन जाएगा। दो आँटा सोहन दे देंगे, दो आँटा चतुरी दे देंगे। नहीं दो-दो देंगे, एक-एक तो देंगे। एक-एक तीन जगह से ले लेंगे, यही ज्यादा सही रहेगा। किसी को नहीं खलेता।...यही सब सोचते-सोचते यदुनंदन अहिराने में दाख़िल हो जाते हैं। वह असमंजस में पड़ जाते हैं कि पहले किसके यहाँ चलें। सोहन के यहाँ, चतुरी के यहाँ या यमुना के यहाँ...फिर सोचते हैं कि पिछले चुनाव में तो फटकार दिए रहे, अब कौन मुँह लेकर जाएँ उन लोगों के यहाँ। अपने लड़के लायक होते तो यह बेहयाई काहे को साधनी पड़ती। वे लोग निश्चित रूप से खार ख़ाए बैठे होंगे। उन्हें बदला चुकाने का अच्छा अवसर मिलेगा...। यदि डाँट कर भगा दिया...उटका पैंची करने लगे तो मैं क्या जवाब दूँगा..., यह सदमा बर्दाश्त कर पाऊँगा मैं...! पुरुखों की यह बात सही है कि हर किसी से संबंध बना कर रखना चाहिए, पता नहीं कब कौन-सा काम पड़ जाय। लेकिन इस राजनीति को क्या कहें हम, हमारा भी दिमाग खराब करके रख दिया। लग रहा था जैसे राजा का सिंहासन हमें ही मिलने वाला हो। लाभ होगा तो नेता को, हानि होगी तो नेता को। अपने राम को तो बस मशीन का बटन दबाना रहा। कोई राज मिलना था ! फिर उखड़ने की क्या ज़रूरत थी ! क्यों कहना चाहिए था कि तू लोग अपनी पार्टी देखो, हम अपनी पार्टी देखें। अब जब अपनी-अपनी पार्टी बन गई है तो वोट क्यों माँगने आ गए। तू लोग हमारी पार्टी को वोट दोगे कि हम तुम्हारी पार्टी को वोट दें ? क्यों माँगने आए वोट ? जाके अपना-अपना काम देखो। फिर कभी मत आना हमारे दरवाज़े...कभी मत आना...कभी नहीं...। सोहन ने आँखें फाड़ कर मेरी ओर देखा था। लग रहा था जैसे उनके भीतर एक ज्वालामुखी खदबदा रहा हो और किसी भी समय फट सकता हो। बस चलता तो कच्चा चबा जाते, पर खून का घूँट पी कर रह गए...मैं किस मुँह से उनसे माँगूगा पुआल...किस मुँह से...। और यदुनंदन अहिराने से थोड़ा पहने ही चकरोड के किनारे उकड़ूँ बैठ जाते हैं, दोनों हाथ से लाठी पकड़े और सिर नीचे किए। उन्हें लगता है कि लाठी के सहारे टिकी है उनकी देह। लाठी न होती तो मुँह के बल भहरा जाते यदुनंदन।
उस समय यदुनंदन को लगा था कि ज़माना बिल्कुल बदल गया है। नहीं भी बदला है तो बदलने जा रहा है, बदल जाएगा। हर आदमी की नहीं तो कम से कम हर बिरादरीकी स्वतंत्र सत्ता हो जाएगी। एक-दूसरे के बीच चले आ रहे सनातनी रिश्ते खतम हो जाएँगे। हम अपना भाग्य बनाएँगे, वे अपना भाग्य बनाएँगे। अपने भाग्य के मालिक आप होंगे। न कोई दूसरे से कुछ लेगा, न खुद दूसरे को कुछ देगा। अब तो अपना राज आने वाला है, तो फिर दूसरे के सामने हाथ ही क्यों फैलाएँगे। अपने बलबूते जीएँगे...अपने बलबूते रहेंगे और अपने बलबूते...।
यदुनंदन के भीतर जैसे बिजली दौड़ गई हो। वह झटके से उठते हैं और लौट पड़ते हैं अपने पूरे की ओर सिवान की ओर निगाह दौड़ाते हैं। अछोर है सिवान। पहले हमारे गाँव के सरहद पर आम का एक बाग था। आठ पेड़ एक कतार में दीवार जैसे लग रहे थे, इसीलिए उस बाग का नाम अठपेड़वा पड़ गया था। ढोर सिवान में चर रहे होते और पेड़ की छाया में बैठ कर हम उन पर निगरानी कर रहे होते। अठपेड़वा यह बताता था कि इसके बाद पड़ोस के गाँव की सीमा शुरू हो जाती है। अब ढोर चराने वालों को आग उगलती जेठी में छाया नसीब नहीं होती होगी। आम के पेड़ कट गए। बाग खेत में बदल गया। दोनों गाँवों की सीमा की पहचान मिट गई। अल्लोपुर-अमरपट्टी की सीमा कहाँ खतम होती है, अल्लोपुर कहाँ से शुरू होता है। पुराने बाग खतम हो गए तो नए बाग क्यों नहीं पनप रहे हैं ! बड़ी जोत वाले किसान आपस में बँटते-बँटते छोटी जोत के हो गए हैं। थोड़े से खेत में खाने को अन्न उपजाएँ कि बाग लगाएँ। कुछ लोगों ने अपने चक के किनारे-किनारे सागौन या युकलिप्टस के पेड़ लगा दिये हैं लेकिन इनसे न फल मिलने है, न जलावन की लकड़ी। हाँ, जब बिकेंगे तब नकद आमदनी जरूर होगी...। और यदुनंदन अपने घर पहुँच जाते हैं।
‘अहिराने क्यों गए थे बाबू ?,’ हरिमोहन ने पूछा।
‘अहिराने नाहीं गए रहे,’ यदुनंदन ने कहा, ‘बइठे-बइठे मन उचाट हो गया तो सोचा, तनिक सिवान घूम आएँ। जीव आन-मान हो जाएगा। चकबंदी हो जाए से पूरा सिवानै बदल गया हो हरिमोहन।’
‘हाँ बाबू, बदल तो गया, बाकि आज गया तो गया, अब कभौं मत जाया अहिराने।’
‘तू हम्मै नान्ह के गदेला समझत हए का रे हरिमोहना ?’ यदुनंदन खीझ उठे,
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